सभी पाठकों को संगीता पुरी का नमस्कार , आज रथ द्वितीया है , यह त्यौहार पुरी में बडे ही धूमधाम से मनाया जाता है। पुरी का श्री जगन्नाथ मंदिर भगवान जगन्नाथ को समर्पित है। इस मंदिर को हिंदुओं के चार धाम में से एक गिना जाता है। मान्यता है कि शेष तीन धामों में बद्रीनाथ सतयुग का, रामेश्वर त्रेता का तथा द्वापर का द्वारका धाम, किन्तु इस कलियुग का पावनकारी धाम तो जगन्नाथ पुरी ही है. आषाढ़ शुक्ल द्वितीय को श्री जगन्नाथ जी की रथ यात्रा होती है जो कि इस धाम का प्रधान महोत्सव है. इस यात्रा में तीन विशाल रथ भव्य तरीके से सजाए जाते हैं, जिसमें पहले में श्रीबलराम जी, दूसरे में सुभद्रा तथा सुदर्शन चक्र और तीसरे में स्वयं भगवान श्रीजगन्नाथ जी विराजमान होते हैं. रथ यात्रा महोत्सव में प्रथम दिन प्रभु का रथ संध्या तक जगन्नाथ पुरी स्थित गुंडीचा मंदिर पहुंच जाता है. दूसरे दिन भगवान को रथ से विधि पूर्वक उतार कर इस मंदिर में लाया जाता है और अगले 7 दिनों तक श्रीजगन्नाथ जी यहीं निवास करते हैं. कहा जाता है कि शेष समय में इस मंदिर में कोई मूर्ति नहीं रहती. पौराणिक मान्यता है कि द्वारका में एक बार श्री सुभद्रा जी ने नगर देखना चाहा, तो भगवान श्रीकृष्ण और श्रीबलराम जी उन्हें पृथक रथ में बैठा कर अपने रथों के मध्य में उनका रथ करके उन्हें नगर दर्शन कराने ले गए. इसी घटना के स्मरण के रूप में भक्तगण भगवान के इस परम धाम में प्रत्येक वर्ष इस रथ यात्रा का भव्यता पूर्वक आयोजन करते हैं. अब शुरू करते हैं आज की वार्ता..... |
स्वामी विवेकानन्द
4 जुलाई की तारीख इस तरह कम याद की जाती है कि सन 1902 में स्वामी विवेकानन्द का निधन इसी दिन हुआ, यह भी कम ही याद किया जाता है कि 12 जनवरी 1863 को जन्म लिए इस महामानव के जीवन के डेढ़ साल रायपुर में बीते, जो कलकत्ता के बाद किसी अन्य स्थान में उनका बिताया सबसे अधिक समय है। 16 वर्ष की आयु में रायपुर से वापस कलकत्ता लौटकर उन्होंने 1879 में एंट्रेंस परीक्षा पास की थी।
रायपुर का बुढ़ा तालाब/विवेकानंद सरोवर, जिसके पास उन्होंने निवास किया
रिल्के, मरीना और एक सिलसिला... 7
इधर मरीना बिगड़ते हुए हालात को संभालने के लिए खुद को गहन दुख में डुबोने तक को तत्पर थी, उधर उसके भीतर का प्रेम हर लम्हा उसका जीना मुहाल किए था. वो यूं तो रिल्के को कोई पत्र नहीं लिख रही थी लेकिन असल में हर वक्त वो रिल्के से अनकहे संवाद में थी. आखिर तमाम वादों, चीजों को संभालने की उसकी जिद, किसी को दु:ख न देने की प्रबल इच्छाशक्ति पर प्रेम ही भारी पड़ा और उसने 3 जून को रिल्के को एक पत्र लिख ही दिया.
तुमने बिन बोले सब बोला, हम बोले तो पलक झुका लीं
अपलक देखा करती मुझको, सन्मुख आके नज़र हटा लीं
हमने कितनी रात बिताईं.. भोर से पहले तारे गिनके...
तुम कब आओगी छज्जे पे.. बैठे है हम ले ’कर’-मनके..!
तुम आईं भी देखा भी था, नयन मिले तो पीठ दिखा दी .!
यः हर भाषा में विविध भावों को व्यक्त करने वाले विभिन्न उच्चार या संबोधन होते हैं। किसी का संबोधन सुनने या कही गई बात को आत्मसात करने वाली ध्वनि है “हुँ” या “हूँ”। इसी तरह स्वीकार के भाव को व्यक्त करने वाला उच्चार है “हाँ”। नकार के लिए “ना” है। इसी तरह का एक उच्चार है “जी”। इस “जी” की व्याप्ति हिन्दी में जबर्दस्त है। यही नहीं, इस “जी” में शायराना सिफ़त भी है। रूमानी अंदाज़ वाली बात हो या उस्तादाना तबीयत वाली नसीहत, इस “जी” की मौजूदगी से रंगत आ जाती है। मिसाल के तौर पर अनपढ़ फिल्म में राजा मेंहदी अली खान के लिखे गीत की यह पक्ति – “जी” हमें मंजूर है आप का हर फैसला / कह रही है हर नज़र बंदापरवर शुक्रिया....। “जी” की अभिव्यक्ति मुहावरेदार भी होती है जैसे किसी की हाँ में हाँ मिलाने को उर्दू में ‘जीहुज़ूरी’ कहा जाता है। इस ‘जी’ की मौजूदगी यहाँ बखूबी पहचानी जा सकती है।
दीया जलाना हम भूल गए!
व्यस्तताओं के बीच अपनों से मिलना भूल गए!जीवन चलता ही रहा बस जीना हम भूल गए!
धुंधली सी आँखें कुछ भी देख नहीं पाईं
वीरान अँधेरे में दीया जलाना हम भूल गए!
रक्तबीज
मैं जानता हूँ,
तुम भी जानते हो
उस आदमी को,
जो न कभी चैन से सो सका,
न सही अर्थों में
जागते देखा गया,
ईर्ष्या के अंगारे
झुलसाते रहे उसे
दिन प्रतिदिन,
खिडकियों से झांककर उसने
ओढ़नी चाही सम्रधता,
इसी कुत्सित प्रयास में
न जाने कितनी बार
चादर से निकल गए उसके पाव,
वो क्या है ?
ये ब्लॉगिंग की ताकत है।
16 मई 2011 को मैंने मजाक-मजाक में यूं ही मोबाईल खोने की पोस्ट लगा दी थी: 'है कोई माई का लाल ब्लॉगर'। अगर सच पूछिए तो मुझे 01 प्रतिशत भी उम्मीद नहीं रह गयी थी कि लगभग 10 महीने पहले खोया मेरा मोबाईल मिल सकेगा। क्योंकि 10 महीने का अर्सा बहुत होता है।लेकिन असम्भव सम्भव हो ही गया। और ये सब हो पाया है ब्लॉगिंग के बल पर।
वाकई हम कायल हैं - (रेखा श्रीवास्तव )
कोई हंसेगा नहीं .... आपस की बात है, जब मेरे पास पहली बार रेखा श्रीवास्तव जी के ब्लॉग का लिंक आया और मैं वहाँ गई तो सच कहती हूँ - मेरे तो हाथ पाँव फूल गए ... हर आर्टिकल किसी शोध से कम नहीं लगता था और अज्ञानी की तरह टुकुर टुकुर देखती, पढ़ती ... समस्या तो तब आती जब अंत में टिप्पणी देने की बारी आती ! ' संसद के कारनामे', 'मी लॉर्ड हम भूखे मर जायेंगे' ... ऐसे आलेख इनके समक्ष मुझे नतमस्तक कर देता और नतमस्तक मैं बाँए-दांये देखती अपने घर लौट आती - कई बार बिना टिप्पणी दिए और बाई गौड मुझे लगता रेखा जी ने मुझे पकड़ लिया है . ये समस्या थी , मेरा सरोकार , मेरी सोच ... में , hindigen में मुझे अपनी खुराक मिली , मन ही मन धन्यवाद दिया - चलो कुछ तो मेरे लिए परोसा .
पीछे देखोगे साथ में भीड़ जुट जाएगी.
है अगर चाहत तुम्हारी सेवा परोपकार की,तो जिंदगी समझो तुम्हारी पुरसुकूं पायेगी.
दुनिया में किसी को मिले न मिले
दुनियावी झंझटों से मुक्ति मिल जाएगी.
हैं फंसे आकर अनेकों इस नरक के जाल में,
मुक्ति चाह जब उनकी आत्मा तडपायेगी .
तब उन्हें देख तुमको हँसते मुस्कुराते हुए
जिंदगी जीने की नयी राह एक मिल जाएगी.
प्रवास-यात्रा में उड़ान-गति
पक्षियों का संसार
मित्रों!
पक्षियों के संसार पर आज का अंक शुरु करने के पहले बड़े हर्ष से सूचित कर रहा हूं कि जनसत्ता के 30 जून के अंक में इस श्रृंखला का एक आलेख को छापा गया, बिना अनुमति के। लिंक यहां है। मुझे खुशी है। हमारे ब्लॉग पर ब-मुश्किल 50-60 हिट्स और 10-15 कमेंट्स आते हैं, निश्चित रूप से जनसत्ता का प्रसार व्यापक है, पाठक वर्ग भी। और मेरा लिखा अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचे, इससे ज़्यादा ख़ुशी की बात मेरे लिए क्या हो सकती है? आइर आज का अंक प्रस्तुत करें ...
पिता जी का जन्मदिन
मुझे पिताजी के साथ बहुत कम रहने का अवसर मिला। हुआ यूँ कि वे अध्यापक हुए तो बाराँ में उन का पदस्थापन हुआ। मुझे पता नहीं कि जब मैं पैदा हुआ तो उन का पदस्थापन कहाँ था। पर उस साल वे कुल 22 किलोमीटर दूर एक कस्बे में अध्यापक थे। चाचा जी बारां में रह कर पढ़ते थे इसलिए माँ को बाराँ ही रहना पड़ता था। छह वर्ष में बाराँ जाना पहचाना नगर हो चुका था। वे अकेले ही कस्बे में रहते और साप्ताहिक अवकाश के दिन बाराँ आ जाते। जिस रात मेरा जन्म हुआ वे मेरी दादी को लेने गाँव गए हुए थे और माँ और चाचाजी अकेले थे। जब मैं दो ढाई वर्ष का हुआ तो एक मंदिर में पुजारी चाहिए।"कैदी"
मैं क़ैद हूँ.... !!
ज़मीन के नीचे
तहखाने में....
जिसकी नींव लेकर
ऊपर,एक उन्नत भवन
बना दिया गया है,
जहां से कुछ लोग,
“जिन्हें मैं जानता नहीं,
जिनकी मैनें
कभी सूरत नहीं देखी,
और जिन्होनें,
कभी मेरी सूरत नहीं देखी”
मुफ्त डोमेन नेम जुलाई 2011 का परिणाम
मासिक मुफ्त डोमेन नेम दिए जाने के क्रम में जुलाई 2011 के लिए प्रविष्ठियां पिछले लेख में मांगी गयी थी ।
इसके लिए कुल 8 लोगों ने इच्छा जताई ।
अब बारी है इसके परिणाम की ......
जिन लोगों ने डोमेन नेम की इच्छा जताई उनके नाम है ........
लगकर गले जाइए
जाइये अब चले जाइए,
एक बार फिर खले जाइए |
कलेजा है, तले जाइए |
जल रहे दिलजले जाइए |
तो आप भी छले जाइए ||
माँ की याद में
दुनिया के टंठों से आजिज आलौट आऊँगा जब तुम्हारे पास तो गोद में मेरा सिर धरअपनी खुरदरी हथेली से जरा थपकियाना मुझे माँ क्या बताऊँ जब से तुम्हें छोड़ परदेस आया हूँ माँरोजी कमाने,कभी नींद-भर सोया नहीं !
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13 टिप्पणियाँ:
Achche Links... Sunder varta
काफ़ी मेहनत से तैयार किये गये लिंक है,
स्वामी विवेकानन्द जी की चर्चा के लिए सादर आभार.
अच्छी चर्चा। विवेकानंद जी के प्रेरक विचार आज भी प्रासंगिक हैं।
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तांत्रिक शल्य चिकित्सा!
बहुत कुछ समेट लिया चर्चा में !
जय जगन्नाथ !!
खूब सारे लिंक मिले संगीता जी,
सुंदरवार्ता के लिए आभार
बढ़िया वार्ता
अच्छी चर्चा.
अच्छे लिंक्स बधाई
आशा
बढ़िया वार्ता ..स्वामी विवेकानंद जी को याद करने और याद दिलाने के लिए आभार ...
मेहनत से जुटाए लिंक. संतुलित चर्चा.
jai ho
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