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8:43 am
संध्या शर्मा
संध्या शर्मा का नमस्कार.... क्या "स्त्री" होना अपराध है ? दिन भर ताना सुन
कर भी,
कितनी खुश होती है वो...
बिना 'खाने' के
दिन गुजर जाता है
उसका...
बिना 'शिकायत' के
जिंदगी गुजार देती है
'वो'...
फिर भी उस पर ये 'इन्सान'
इतना 'शैतान' क्यों है ?
हैवान क्यों है ?
क्या अपराध किया जो वो "स्त्री" हुयी ?
राते बिता देती है वो
रोटी से बाते करके...
अगर एक दिन 'मै' देर से आया...
घर में अकेले पूरी 'जिंदगी'
बिता देती है 'वो'
सीमा में खड़े 'पति' के लिए....
साथ कोई हो न हो
'वो' हमेशा साथ खड़ी होती है...
कभी भी,
कही भी,
कैसे भी,
फिर भी उसकी सांसो में चीत्कार क्यों ?
क्या अपराध है उसका
यही की वो "माँ", "पत्नी" या "बहिन" है ... एक प्रश्न.... कौन है औरत ??? आज समाज कितना भी प्रगतिशील हो गया है फिर भी उसकी सोच पुरातन है …इस प्रश्न का उत्तर अब उसे खुद खोजना होगा . आइये अब चलें ब्लॉग 4 वार्ता की ओर कुछ उम्दा लिंक्स के साथ.....
जैसा यहाँ होता है वहाँ कहाँ होता है *कभी कभी बहुत अच्छा होता है जहाँ आपको पहचानने वाला कोई नहीं होता है कुछ देर
के लिये ही सही बहुत चैन होता है कोई कहने सुनने वाला भी नहीं कोई चकचक कोई
बकबक नहीं जो मन में आये करो कुछ सोचो कुछ और लिख दो शब्दों को उल्टा करो...जिंदगी के रंगमंच पर !!!जिंदगी के रंगमंच पर लगाकर आईना जिंदगी ने,
हर लम्हा इक नया ही रंग दिखाया है जिंदगी ने ।
ख्वाब, हो ख्वाहिश हो या फिर हो कोई जुस्तजू,
कदमों का साथ हर मोड़ पे निभाया है जिंदगी ने । मैं उदास हूँ..पानी में पानी का रंग
तलाशना
जता देना है कि
मैं उदास हूँ।
ख़ुशी में ग़म
तलाशना
जता देना है कि
मैं उदास हूँ।
ऊँची पहाड़ियों पर
घाटियों को निहारना
जता देना है कि
मैं उदास हूँ।
चित्र-कविता
-
सूरज, की तरह स्थिर रहो
सबके जीवन में
नदी की तरह बह निकलो
सबके जीवन से
पेड़ जैसे छाया दो
सबको जीवन में
धरा सा बसेरा दो
सबको अपने मन में
...हाशिया
-
हाशिये पर रहने वालों के
न पेट होते हैं न जुबाँ न दिल
न होती हैं उनकी जरूरतें
आखिर सुरसा भी क्यों
उन्ही के यहाँ डेरा जमाये
तो क्या नहीं होती उनकी कोई ..बेसुध ...
-
कहीं थक न जाऊं खुद अपनी तकदीर लिखते लिखते
'उदय' तुम, … यूँ ही, … मेरा हौसला बनाये रखना ?
…
उनके झूठ पे, सौ लोगों ने सच होने की मुहर लगा दी है 'उदय'
और सच...
प्रश्नोत्तर
-
प्रश्नचिन्ह मन-अध्यायों में,
उत्तर मिलने की अभिलाषा ।
जीवन को हूँ ताक रहा पर,
समय लगा पख उड़ा जा रहा ।।१।।
ढूढ़ रहा हूँ, ढूढ़ रहा था,
और प्रक्रिया फिर दोहरा...एक ब्लागर की चिट्ठी प्रधानमंत्री जी के नाम - क्या अब सचमुच शुद्ध हो पाएंगी
गंगा?
-
प्रधान मंत्री जी गंगा के शुद्धिकरण को लेकर आप कटिबद्ध हैं। मगर तनिक रुकिए
- गंगा शुद्ध हो यह कोटि कोटि जनों की मांग है। गंगा संस्कृति प्रसूता है ...कामयाबी और नकामी
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कभी भी 'कामयाबी' को दिमाग और 'नकामी' को दिल में जगह नहीं देनी चाहिए।
क्योंकि, कामयाबी दिमाग में घमंड और नकामी दिल में मायूसी पैदा करती है।क्यूट-क्यूट है दोस्त हमारी - बाल कविता
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बिल्कुल इस गुड़िया के जैसी
क्यूट-क्यूट है दोस्त हमारी
जब हम कोई खेल खेलते
देती मुझको अपनी बारी
कभी न लड़ती, सदा किलकती
बस खुशियाँ ही बरसाती है
मीठी-मीठी...
अचानकमार : वनवासी की यात्रा
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काफ़ी दिन हो गए थे जंगल की ओर गए, जैसे जंगल मेरा घर है जो हमेशा बुलाता है।
कहता है आ लौट आ, मिल ले आकर मुझसे। अब पहले जैसा नहीं रहा, जैसा तू छोड़ कर
गया था। ..कविता तुम्हारी
-
नही पढ पाता मैं
भावोत्पादक कविताएं
सीधे दिल में उतरती हैं
और निर्झर बहने लगता है
एक एक शब्द
अंतर में उतर कर
बिंध डालता है मुझे
आप्लावित दृग
देख नहीं पाते
छवि...वन संपदा
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1--धानी चूनर
पहनी धरती नें
छटा असीम
योवन छलकता
मन छूना चाहता |
2--है हरीतिमा
मनोरम दृश्य है
महका वन
पक्षी पंख फैलाते
चैन की सांस लेते ...
नियती...
-
नियती घट की
अंतिम बूंदों सी
विदा बेला पर
जीवन रेखा के
समाप्ति काल तक
ऐसे लगी रहेगी
दृष्टि उस द्वारे पर
जैसे कोई मोर
व्याकुल नेत्रों से
बैठ तकता है .ख़ामोशी
-
तन्हाई में जिनको सुकून-सा मिलता है,
आईना भी उनको दुश्मन-सा लगता है।
दिल में उसके चाहे जो हो तुझको क्या,
होठों से तो तेरा नाम जपा करता है।
तेरी जिन आंखों मे...बंधन और बाँध - में फर्क है !
-
कोई बंधन में डाले
या हम स्वयं एक बाँध बनाएँ
- दोनों में फर्क है !
तीसरा कोई भी जब रेखा खींचता है
तो उसे मिटाने की तीव्र इच्छा होती है
न मिटा पाए
तो एक समय...
क्यों से क्यों तक.......
-
क्यों ?
सबसे कमजोर क्षणों में तुम्हारी ही
सबसे अधिक आवश्यकता होती है
और आलिंगी सी तू फलवती होकर
चूकी कामनाओं में भी सरसता बोती है.....
क्यों ?
जब मैं व्यर्थ...
किताब का जादू
-
वो एक लम्बे अरसे से इस किताब को पढ़ रहा था।किताब जैसे उसके व्यक्तित्व का
हिस्सा हो गयी थी। किताब उस आदमी में कुछ भी अतिरिक्त जोड़ती न थी। न कम ही
करती थी। पर...याद की पगडंडियाँ और सुख
-
हवा हर कोने में रखती है ज़रा ज़रा सी रेत। रेत पढ़ती है रसोई की हांडियों को,
ओरे में रखी किताबों को, पड़वे में खड़ी चारपाई को, हर आले को, आँगन के हर कोने
को। ...
दीजिये इजाज़त नमस्कार........