आप सबों को
संगीता पुरी का नमस्कार , कांग्रेस ने आज इस बात को खारिज कर दिया कि घपले और घोटाले कल चार साल पूरा करने जा रही संप्रग-दो की कमियां रही हैं। संप्रग कल सत्ता में लगातार नौ साल भी पूरा करेगी। जब पत्रकारों ने यह सवाल किया कि क्या पार्टी मानती है कि घोटाले संप्रग-दो की कमी है, इस पर पार्टी प्रवक्ता राज बब्बर ने कहा, ‘‘नहीं मैं ऐसा नहीं मानता। क्या नौ साल पहले भ्रष्टाचार नहीं होता था?’’ बब्बर ने कहा कि कांग्रेस की अगुवाई वाली सरकार ने जनता को सूचना का अधिकार जैसा औजार दिया है जिससे कोई भी किसी ताकतवर शख्स की ओर से किए गए गलत काम को उजागर कर सकता है। अब चलते हैं आज की वार्ता पर .....
शिमला कालका रेल यात्रा इस यात्रा वृत्तान्त को शुरू से पढने के लिये यहां क्लिक करें। 27 अप्रैल 2013 सुबह सराहन में साढे पांच बजे उठा और अविलम्ब बैग उठाकर बस अड्डे की ओर चल दिया। तीन बसें खडी थीं, लेकिन चलने के लिये तैयार कोई नहीं दिखी। एक से पूछा कि कितने बजे बस जायेगी, उसने बताया कि अभी पांच मिनट पहले चण्डीगढ की बस गई है। अगली बस साढे छह बजे रामपुर वाली जायेगी। चाय की एक दुकान खुल गई थी, चाय पी और साढे छह बजे वाली बस की प्रतीक्षा करने लगा। बिना किसी खास बात के आठ बजे तक रामपुर पहुंच गया। यहां से शिमला की बसों की भला क्या कमी?
कुछ ऐसी पुस्तके जो बदल देगी आपकी आने वाली जिन्दगी को मेरी पिछली पोस्ट में आपने शेयर मार्किट से जुडी पुस्तक देखी थी आज की पोस्ट में आप लोगो के बीच ऐसी पुस्तके ला रहा हु जिन्हें पढ़कर आपकी जिन्दगी में जरुर बदलाव आयेंगे इन पुस्तको को पढ़कर आप अपनी आने वाली जिन्दगी को बहुत ही मस्त रूप से जी सकते हो तो चलिए आपको लेकर चलता हु उन पुस्तको की दुनिया में जो आपकी जिन्दगी में बदलाव लाएगी।
मुँबई से बैंगलोर तक भाषा का सफ़र एवं अनुभव.. करीबन ढ़ाई वर्ष पहल मुँबई से बैंगलोर आये थे तो हम सभी को भाषा की समस्या का सामना करना पड़ा, हालांकि यहाँ अधिकतर लोग हिन्दी समझ भी लेते हैं और बोल भी लेते हैं, परंतु कुछ लोग ऐसे हैं जो हिन्दी समझते हुए जानते हुए भी हिन्दी में संवाद स्थापित नहीं करते हैं, वे लोग हमेशा कन्नड़ का ही उपयोग करते हैं, कुछ लोग ऐसे होते हैं जो हिन्दीभाषी जरूर हैं परंतु दिन रात इंपोर्टेड अंग्रेजी भाषा का उपयोग करते हैं, इसी में संवाद करते हैं। जब मुँबई गया था तब लगता था कि सारे लोग अंग्रेजी ही बोलते हैं, परंतु बैंगलोर में आकर अपना भ्रम टूट गया ।
पराजय-बोध से ग्रस्त भाजपा कर्नाटक चुनाव के नतीजे आने के बाद पिछले हफ्ते लालकृष्ण आडवाणी ने अपने ब्लॉग में लिखा कि यह हार न होती तो मुझे आश्चर्य होता। पूर्व मुख्यमंत्री बीएस येद्दियुरप्पा के प्रति उनकी कुढ़न का पता इस बात से लगता है कि उन्होंने उनका पूरा नाम लिखने के बजाय सिर्फ येद्दी लिखा है। वे इतना क्यों नाराज़ हैं? उनके विश्वस्त अनंत कुमार ने घोषणा की है कि येद्दियुरप्पा की वापसी पार्टी में संभव नहीं है।
स्पॉट फ़िक्सिंग : चंद हाईप्रोफ़ाइल ब्लॉगर और लेखक भी शामिल! स्पॉट फ़िक्सिंग क्या क्रिकेटरों और बॉलीवुड सेलिब्रिटीज़ की ही बपौती है? कतई नहीं. पता चला है कि चंद हाईप्रोफ़ाइल ब्लॉगर और लेखक भी अब स्पॉट फ़िक्सिंग में शामिल हो गए हैं. सीबीआई जो वाकई में तोता नहीं हो, उससे जाँच करवाई जाए तो और राज निकल सकते हैं. बहरहाल हाल ही में एक फ़ोन टेपिंग में यह खुलासा हुआ है. टेलिफ़ोन टेपिंग की आधी-अधूरी ट्रांसस्क्रिप्ट जो हासिल होते होते रह गई है, वो कुछ इस तरह है - - भाई, अब तो पंगा हो गया हे ना. क्रिकेट में तो मामला जमेगा नहीं.
आत्ममुग्धता का संसार *-गणेश पाण्डेय* सोचा है नत हो बार-बार - ‘‘ यह हिंदी का स्नेहोपहार है नहीं हार मेरी, भास्वर यह रत्नहार लोकोत्तर वर’’ - अन्यथा, जहाँ है भाव शुद्ध साहित्य कला-कौशल प्रबुद्ध हैं दिये हुए मेरे प्रमाण कुछ नहीं, प्राप्ति को समाधान पार्श्व में अन्य रख कुशल हस्त गद्य में पद्य में समाभ्यस्त। ‘सरोज-स्मृति’ का यह अंश पता नहीं क्यों मेरे भीतर उमड़-घुमड़ रहा है। निराला क्यों कहते हैं कि मेरे समय के दिग्गजों का काम मेरे काम से मिला कर देख लो।
जैसे उडी जहाज को पंछी . कुछ देर वो लोग उस आलीशान होटल के कमरे में अंगरेजी में बातें करते रहे और बातें करते हुए ही कमरे से जुड़े शानदार छज्जे में जा खड़े हुए |मै अपने चारों और विस्फरित नेत्रों से देख रहा था ‘’क्या ये कमरा भी इसी प्रथ्वी का कोई हिस्सा होगा ?’’मैंने अपने अनदेखे सपनों की तरफ एक प्रश्न उछाला (जो लौटकर फिर मेरे जेहन में आ गिरा )|अद्भुत अभूतपूर्व द्रश्य क्रमशः प्रकट हो रहे थे उसी क्रम में अब एक होटल कर्मचारी जिसकी सफ़ेद चमचमाती वर्दी मेरे मैले कुचैले कपड़ों से कई गुना व्यवस्थित और साफ़ सुथरी थी मेरे सामने कुछ इस्त्री किये तहशुदा कपडे लेकर खड़ा था बिना कुछ बोले बुत की तरह |
शिकायतों की चिट्ठी भी .... हप्रेम ने कब भाषा का लिबास पहना हैं, इसने तो बस मन का गहना पहना है । कभी तकरार कहाँ हुई इसकी बोलियों से, कहता है कह लो जिसको जो भी कहना है । लाख दूरियाँ वक्त ले आये परवाह नहीं, हमको तो एक दूसरे के दिल में रहना है । दिखावट का आईना नहीं होता प्रेम कभी, हकीकत की धरा पर इसको तो बहना है । शिकायतों की चिट्ठी भी हँस के बाँचता, प्रेम विश्वास का *सदा *अनुपम गहना है ।
किताबों की दुनिया - 82 कहती है ज़िन्दगी कि मुझे अम्न चाहिए ओ' वक्त कह रहा है मुझे इन्कलाब दो इस युग में दोस्ती की, मुहब्बत की आरज़ू जैसे कोई बबूल से मांगे गुलाब दो जो मानते हैं आज की ग़ज़लों को बेअसर पढने के वास्ते उन्हें मेरी किताब दो आज हमारी किताबों की दुनिया श्रृंखला में हम उसी किताब "*ख़याल के फूल* " की बात करेंगे जिसका जिक्र उसके शायर जनाब "*मेयार सनेही* " साहब ने अपनी ऊपर दी गयी ग़ज़ल के शेर में किया है. मेयार सनेही साहब 7 मार्च 1936 को बाराबंकी (उ प्र ) में पैदा हुए. साहित्यरत्न तक शिक्षा प्राप्त करने बाद उन्होंने ग़ज़ल लेखन का एक अटूट सिलसिला कायम किया।
गर्मी की छुट्टियाँ वाह, गर्मी की छुट्टियाँ। कितने बेसब्री से इंतजार रहता है इसका। 11 मई से हमारे स्कूल बन्द और अब धमाल और मस्ती। सोच रही हूँ कि इन हालिड़ेज़ में पूरा इलाहाबाद घूमूं। यहाँ पर कई हिस्टोरिकल प्लेसेज़ हैं, मुझे उनके बारे में जानना है। पर गर्मी इतनी ज्यादा है की दिन में घर से बाहर निकलने की हिम्मत ही नहीं पड़ती। सारा दिन घर में बीतता है और शाम को पार्क, मॉल, मार्केटिंग और मूवी। इन हालिड़ेज़ में हमने दो मूवी देखी - 'छोटा भीम एंड थार्न आफ दि बाली' और 'गिप्पी'. छोटा भीम तो मेरा फेवरेट सीरियल भी है, इसका कोई पार्ट नहीं छोड़ती, फिर मूवी कैसे छोड़ देती।
पत्ते, आँगन, तुलसी माँ ...चौंका, बर्तन, पूजा, मंदिर, पत्ते, आँगन, तुलसी माँ, सब्जी, रोटी, मिर्च, मसाला, मीठे में फिर बरफी माँ, बिस्तर, दातुन, खाना, पीना, एक टांग पे खड़ी हुई, वर्दी, टाई, बस्ता, जूते, रिब्बन, चोटी, कसती माँ, दादा दादी, बापू, चाचा, भईया, दीदी, पिंकी, मैं, बहु सुनो तो, अजी सुनो तो, उसकी मेरी सुनती माँ, धूप, हवा, बरसात, अंधेरा, सुख, दुख, छाया, जीवन में, नीव, दिवारें, सोफा, कुर्सी, छत, दरवाजे, खिड़की माँ, मन की आशा, मीठे सपने, हवन समिग्री जीवन की, चिंतन, मंथन, लक्ष्य निरंतर, दीप-शिखा सी जलती माँ, कितना कुछ देखा जीवन में, घर की देहरी के भीतर, इन सब से अंजान कहीं
कितना नीरस होता एक हथोड़ा व एक बांसुरी एक साथ रहते जीवन कितना गुजर गया यह तक नहीं सोचते | था हथोड़ा कर्मयोगी महनतकश पर हट योगी सदा भाव शून्य रहता खुद को बहुत समझता | थी बांसुरी स्वप्न सुन्दरी कौमलांगिनी भावों से भरी मदिर मुस्कान बिखेरती स्वप्नों में खोई रहती | जब भी ठकठक सुनती तंद्रा उसकी भंग होती आघात मन पर होता तभी वह विचार करती | क्या कोइ स्थान नहीं उसका उस कर्मठ के जीवन में पर शायद वह सही न थी भावनाएं सब कुछ न थीं जीवन ऐसे नहीं चलता ना ही केवल कर्मठता से |
प्रेम ही है ईश्वर सितम्बर २००४ *इस* सृष्टि का आधार प्रेम ही है, प्रभु की कृपा से जब किसी के पुण्य जग जाते हैं, तो इस प्रेम की प्राप्ति होती है, यह एक ऐसा धन है जिसे पाकर संसार के सभी धन फीके लगते हैं, जो घटता नहीं सदा बढ़ता रहता है. जन्मों-जन्मों से संसार को चाहता मन उसके चरणों में टिकना चाहता है, अब उसे अपना घर मिल गया है. जगत तो क्रीड़ास्थली है जहाँ कुछ देर अपना कर्तव्य निभाना है, और फिर भीतर लौट आना है. जगत में उसका व्यवहार अब प्रेम से संचालित होता है न कि लोभ अथवा स्वार्थ से. परमात्मा ही इस प्रेम का स्रोत है. हम जो इसकी झलक पाकर ही संतुष्ट हो जाते हैं,
'समर' के इस समर में 'समर' के इस समर में संभल संभल के चलना है सर पे टोपी या अंगोछा साथ मे पानी पीते रहना है यह मौसम है लू का तपती धूप का मेरे लिये घर की ठंडक में दुबक कर हर दुपहर को सोना है बस आज निकला जो घर से बाहर तो हर 'अक्सर' की तरह देखा मजदूर के बच्चों को तो अंगारों पे ही रहना है मेरे पैरों मे पड जाते हैं चलते चलते छाले पैरों में 'कुशन' की चप्पल पहन कर के ही निकलना है 'समर' के इस समर में संभल संभल के चलना है कहीं तर बतर गले हैं कहीं सूखते हलक को जीना है।
सही मायनों में जी भरके कहते हैं सब रहिमन की पंक्तियाँ - "रहिमन निज मन की व्यथा, मन ही राखो गोय। सुनि इठिलैहें लोग सब, बाटि न लैहैं कोय।।" तो व्यथा की चीख मन में रख हो जाओ बीमार डॉक्टर के खर्चे उठाओ नींद की दवा लेकर सुस्त हो जाओ !!!!!!!!!!!!!!! रहीम का मन इठलानेवाला नहीं था न व्यथित रहा होगा मन तो एहसासों को लिखा होगा .... जो सच में व्यथित है - वह कैसे इठलायेगा तो ........ कहीं तो होगा ऐसा कोई रहीम जिससे मैं जी भर बातें कर सकूँ सूखी आँखें उसकी भी उफन पड़े मैं भी रो लूँ जी भर के
ब्राह्मणों का अनादरइस पोस्ट का आशय सिर्फ कुछ अतिवादियों को आइना दिखाना है न की जातिवाद को बढ़ावा देना .. गीता के चौथे अध्याय में कर्म से ब्राम्हण होने को कहा गया है देखते हैं कुछ कर्मयोगी ब्राम्हणों की गाथा ... आजकल ब्राह्मणों का अनादर करना हमारे हिन्दू धर्म में फैसन बन गया है । जबकि भारत के क्रान्तिकारियो मे 90% क्रान्तिकारी ब्राह्मण थे जरा देखो कुछ मशहूर ब्राह्मण क्रान्तिकारियो के नाम ब्राह्मण स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी (१) चंद्रशेखर आजाद (२) सुखदेव (३) विनायक दामोदर सावरकर( वीर सावरकर ) (४) बाल गंगाधर तिलक (५) लाल बहाद्दुर शास्त्री (६) रानी लक्षमी बाई (७) डा. राजेन्द्र प्रसाद
क्या है ताऊ का अस्तित्व और हकीकत श्री ज्ञानदत्त जी पांडे जो कि ब्लागजगत के सम्माननिय और प्रथम पीढी के ब्लागरों में से एक हैं, और जो अपनी नियमित और सारगर्भित पोस्ट्स के लिये जाने जाते हैं, ने शायद सबसे पहले 3 dec. 2008 को अपनी पोस्ट यह ताऊ कौन है के द्वारा जिज्ञासा प्रकट की. इसके पश्चात सभी ब्लागर्स में ताऊ शब्द एक पहेली बना रहा. मेरे ही शहर के सम्माननीय ब्लागर श्री दिलीप कवठेकर तो एक कदम और आगे जाते हुये हमारे शहर की उस पान की दूकान तक भी पहुंच गये जहां "कृपया यहां ज्ञान ना बांटे, यहां सभी ज्ञानी हैं" की तख्ती लगी है.
चटाईयां पेड़ पर नहीं उगती ................कल एक बुढिया को चटाई बुनते देखा तब लगा चटाईयां बुनी जाती हैं पेड़ पर नहीं उगती पैसों के जोर पर वो खुशियाँ खरीदने निकल जाता है उसे ज्ञान नहीं खुशियाँ बाज़ार में नहीं मिलती सतह पर टिकने के लिए कुछ प्रयास सतही हो सकते हैं पर ग्रुत्वाकर्षण के सिद्धांत के बगैर कोई चीज सतह पर नहीं टिकती जन्म से मृत्यु तक सुख और दुःख के काल खंड पलटते रहतें हैं पूरा जीवन सुख या सिर्फ दुःख में नहीं गुजरती मै बुढिया से मूल्य कम करा लेता हूँ चटाई की वो मेरे चले जाने से डरती है और किसी नुकसान से नहीं डरती
जमाव रिश्तों का ...एक ज्योतिषी ने एक बार कहा था उसे वह मिलेगा सब जो भी वह चाहेगी दिल से उसने मांगा पिता की सेहत, पति की तरक्की, बेटे की नौकरी, बेटी का ब्याह, एक अदद छत. अब उसी छत पर अकेली खड़ी सोचती है वो क्या मिला उसे ? ये पंडित भी कितना झूठ बोलते हैं. ************************ चाहते हैं हम कि बन जाएँ रिश्ते जरा से प्रयास से थोड़ी सी गर्मी से और थोड़े से प्यार से पर रिश्ते दही तो नहीं जो जम जाए बस दूध में ज़रा सा जामन मिलाने से .
बरगद हो जाना कोई आसान बात नहीं है श्रीगंगानगर-गजसिंहपुर के एक बड़ के पेड़ की धुंधली सी छाया है स्मृतियों मेँ। चारों तरफ फैला हुआ...खूब मोटा तना....भरा भरा...पता नहीं कितना पुराना था। उसके नीचे सब्जी वाला होता, राहगीर भी। बच्चे भी उसकी छाया मेँ गर्मी काटते। टहनियों पर अनेक प्रकार के परिंदों की आवा जाही। क्या मालूम उसे ऐसा बनने मेँ किता समय लगा। अपने आप को कितने दशकों तक धूप,गर्मी,आँधी,सर्दी,गहरी रात मेँ अपने आप को अचल रखा होगा तभी तो शान से खड़ा था वह बड़/बरगद का पेड़।
रहबर नहीं है-क्या कहा है आज तुमने ये तुम्हारा स्वर नहीं है- सोच लो बैठे जहाँ हो वो तुम्हारा घर नहीं है- खा रहे हो कसमें जिनकी वो कोई ईश्वर नहीं है - चल दिए हो हाथ पकडे, वो तेरा रहबर नहीं है- तुम तो डरते हो जिंदगी से उसे क़यामत से डर नहीं है- -- उदय वीर सिंह
आज के लिए बस इतना ही .. मिलते हैं एक ब्रेक के बाद .....