बुधवार, 9 मई 2012

जहाँ मन निर्भर और मस्तक ऊँचा रहता हो ... ब्‍लॉग4वार्ता .. संगीता पुरी

आप सबों को संगीता पुरी का नमस्‍कार , गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर की 151वीं जयंती पर मंगलवार को  संसद के दोनों सदनों में सदस्यों ने उन्हें भावुक होकर याद किया। सरकार ने उनके नाम से एक अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार शुरू करने की घोषणा की। पहला टैगोर अंतरराष्ट्रीय सम्मान प्रख्यात सितारवादक पंडित रविशंकर को दिया जाएगा। प्रत्‍येक वर्ष यह पुरस्‍कार किसी क्षेत्र विशेष की जानीमानी हस्ती को दिया जाएगा। लोकसभा में अध्यक्ष मीरा कुमार ने कहा कि टैगोर पहले एशियाई व्यक्ति थे, जिन्हें 1913 में साहित्य के नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया। हिंदी ब्‍लोगरों ने भी रविन्‍द्र नाथ टैगोर को याद किया, प्रस्‍तुत है कुछ पोस्‍ट ब्‍लॉग4वार्ता में ....

 रविन्द्रनाथ टैगोर की आज 151वीं जयंती है......नोबल पुरस्कार से सम्मानित टैगोर की  यादगार कविता.....

Where the mind is without fear and the head is held high

Where knowledge is free
Where the world has not been broken up into fragments
By narrow domestic walls
Where words come out from the depth of truth
Where tireless striving stretches its arms towards perfection
Where the clear stream of reason has not lost its way
Into the dreary desert sand of dead habit
Where the mind is led forward by thee
Into ever-widening thought and action
Into that heaven of freedom, my Father, let my country awake.
 FROM JAGRAN FB WITH THANKS
अर्थात ......
 जहाँ मन निर्भर और,
मस्तक ऊँचा रहता हो,
जहाँ ज्ञान और,
विज्ञान की बहती सरिता हो |
जहाँ ना संकीर्णता हो,
ना विघटन हो,
जहाँ स्वछंदता हो,
ना घुटन हो |
जहाँ शब्दों में सत्यता दीखे,
जहाँ कर्मों में कुशलता मिले |
जहाँ जटिल नहीं,
सरल विचार हो,
जहाँ कठिन नहीं,
सहज आचार हो |
हे प्रभो ! देश मेरा ,
उन्मत्त हो,
उन्नत हो,
उत्तम हो,
भारत का नव उदय हो !
रवीन्द्र नाथ मूलतः बंगला के कवि हैं, लेकिन वे भारत के और विश्व के कवि हैं। रविन्द्रनाथ टैगोर का जन्म हुआ। कलकत्ता में 7 मई,1861 में हुआ। रविन्द्रनाथ को एक समृद्ध विरासत मिली थी। रविन्द्रनाथ टैगोर के दादा द्वारकानाथ ने जहां उत्पादन को बढ़ावा देने में अपनी ऊर्जा लगाई, वहीं इनके पिता देवेन्द्रनाथ टैगोर ने राजा राममोहन राय द्वारा स्थापित ब्रह्म समाज में सक्रियता से कार्य किया।रविन्द्रनाथ का संबंध जमींदार घराने से था, उनके दादा द्वारकानाथ ठाकुर राजा कहलाते थे, लेकिन रविन्द्रनाथ का बचपन साधारण तरीके से ही बीता। उन्होंने लिखा कि “हमारे बचपन में भोग-विलास का सरंजाम नहीं था, इतना कहना काफी होगा। ...हम लोग नौकरों के शासन में थे। अपने काम को आसान करने के लिए उन लोगों ने हमारा हिलना-डुलना एक तरह से बन्द कर दिया था। ...हमारे खान-पान में शौकीनी की गंध भी न थी। कपड़े-लत्ते इतने साधारण थे कि आज के लड़कों के सामने उनकी फेहरिस्त रखने से इज्जत जाने का डर है।
सुबह-सुबह जब स्कूल के सभी बच्चे एक साथ एक ही सुर में राष्ट्र गान को अपनी आवाज देते हैं तो ऐसा लगता है जैसे पूरा देश एकता के सूत्र में बंध गया हो. जब मुख से राष्ट्रगान की आवाज निकलती है तो ऐसा लगता है कि हर कोई देश के विकास और समृद्धि के लिए प्रार्थना कर रहा हो. आज जहां भी हम इस गीत को सुनते हैं हम खड़े होकर इसका सम्मान करना नहीं भूलते. जब एक ही सुर में पूरा देश राष्ट्रगान गाता है तो उस समय हम देश के साथ एक ऐसी हस्ती को सम्मान देते है जिन्होंने राष्ट्रगान को एक संरचना प्रदान की और उनका नाम है रवीन्द्रनाथ टैगोर.

रविन्द्रनाथ टैगोर एक बड़े और सही मायने में एक मुकम्मल साहित्यकार थे। उनका लंबा जीवनकाल कर्मप्रधान रहा। उनकी रचनाएं देशकाल की सीमा लांघकर वैश्विक धरातल पर चर्चित हुई। वे निरंतर इस बात के लिये प्रयत्नशील रहे कि पूर्व और पश्चिम एक दूसरे के निकट आएं और उनमें एक ऐसा मेल उत्पन्न हो, जिसके आधार पर विश्व की मानवता एक सूत्र में बंध जाए। उनके इसी दृष्टिकोण ने उन्हे विश्वकवि के रूप में प्रतिष्ठापित किया।उनके कलम में जादुई ताकत थी। उनका एक जीवन दर्शन था। इस जीवन दर्शन के माध्यम से अपने कृतित्व की एक विशेष छाप छोड़ गए हैं।
रविन्द्रनाथ टैगोर को इश्वर की खोज थी !गीतांजलि मे उन्होंने ईश्वर के गीत गाये और उनके पडोसी ने उनसे पूछा की क्या आपने ईश्वर को कहीं देखा यानि कभी साक्षत्कार हुआ ! बहुत मुश्किल मे पड़े थे ! उन्होंने अपने संस्मरण मे लिखा कि फिर मुझे ईश्वर की उतनी लालसा नही थी जितनी उस पडोसी से बचकर रहने की थी ,क्योंकि उन्होंने मुझे सीधा सीधा पूछ लिया था कि ईश्वर से साक्षात्कार हुआ या नही ? अगर कोई ईश्वर के बारे मे बात करे और सीधा पूछ ले हमसे कि आप इतनी बातें कर रहे हैं ,देखा है कभी उनको ,तो हम बगलें झाँकने लगेंगें ! हम यहाँ से वहाँ हो जायेंगें कि देखा वेखा तो नही है ,पर है जरूर वो ,तो फिर चलो उसकी खोज करें ! 
 इसके अलावे आज के कुछ महत्‍वपूर्ण पोस्‍ट पर भी नजर डालते हैं ,

सामाजिक खेल

समाज, एक ऐसा शब्द जो दर-ब-दर हमारे आस पास घूमता है.. मंडराता है.. डराता है.. धमकाता है.. बांधे रखता है..
इस शब्द से रिश्ता ज़िन्दगी के पहले अक्षर से जुड़ जाता है..
हम क्या खाते हैं, क्या पीते हैं, कैसे उठे-बैठते हैं, कैसे चलते हैं, क्या कार्य करते हैं, किससे मिलते हैं, कहाँ जाते हैं, कहाँ नहीं जाते हैं, इत्यादि.. सब कुछ समाज ही निर्धारित करता है..
हम स्वयं तो कुछ हैं ही नहीं.. हम हमारी सोच को समाज के अनुसार निर्धारित करते हैं न कि अपनी इच्छाओं और कार्य-प्रबलता के अनुसार..

बाबा

एक दिन अचानक पहली मंज़िल वाली निर्मला आई। खुशी चेहरे से टपकी पड़ रही थी। सुबह-सुबह किसी चमकते हुए फूल की तरह की कोई सूरत देखने को मिल जाए तो बात ही क्या! शांति को लगा कि ज़रूर इसकी लॉटरी लग गई होगी। पर उसने बताया कि बाबा ने याद किया है.. वो जा रही है। इतना कहकर निर्मला ने एक चाभी उसके हाथों में सरका दी। और कहा कि पांच दिन में लौट आएगी.. पौधों को पानी देती रहना। अच्छे पड़ोसी एक-दूसरे के काम आते हैं। शांति अच्छी पड़ोसन थी। हँसते हुए ज़िम्मेदारी ले ली। पांच दिन बिला नागा पानी देती रही। पांचो दिन की सुबह जब वो पानी देने के लिए निर्मला के घर में प्रवेश करती तो घुसते ही उसकी नज़र सिंहासन पर बैठे, गेरुआ पहने बाबा की करुणामय मूर्ति पर पड़ती। यही वो बाबा थे जिन्होने अपने दरबार में     हाज़िरी देने के लिए निर्मला को सपरिवार बुलाया था।
दूर ..सुदूर पहाड़ी पर ...
मेरा मन मंदिर ...
दिखता है तुम्हारा 
आलीशान  मंदिर .....
चढ़ रही हूँ ....
लीन तुम में ...
एकाग्रचित्त ....!!
सुरों की माला जपती ...
कितने सुंदर रस्ते से -
गुज़र रही हूँ मैं .......!!
राह पर भरे   हुए ..
झरे हुए  गुलमोहर....!!

"फ़िज़ूल का रोना धोना छोड़ो.. पहले देश के हालात सुधारो फ़िर रोकना हमें..!!"

  हज़ूर की शान में कमी आते ही हज़ूर मातहओं को कौआ बना देने में भी कोई हर्ज़ महसूस नहीं करते. मार भी देते हैं लटका भी देते हैं .. सच कितनी बौनी सोच लेकर जीते हैं तंत्र के तांत्रिक .जब भी जवाव देही आती है सामने तो झट अपने आप को आक्रामक स्वरूप देते तंत्र के तांत्रिक बहुधा अपने से नीचे वाले के खिलाफ़ दमन चक्र चला देते हैं. कल ही की बात है एक अफ़सर अपने मातहतों से खफ़ा हो गया उसके खफ़ा होने की मूल वज़ह ये न थी कि मातहत क्लर्कों ने काम नहीं किया वज़ह ये थी कि वह खुद पत्र लिखने में नाक़ामयाब रहा. और नाकामी की खीज़ उसने अपने मातहतों को गरिया के निकाली.

11 टिप्पणियाँ:

बेहतर लिंक्स का संयोजन ...!

बहुत सुन्दर लिंक्स और बेहतरीन वार्ता के लिए आभार... गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर को हमारा शत-शत नमन...

NAARAZAGI NAA HO TO SAMAY NIKALKAR POST MAIL KARANE KI
KRIPA KAREN TAKI BACHCHON KO SUNAYA JA SAKE.
AABHAR .

सुन्दर लिंक्स और बेहतरीन वार्ता प्रस्तुति के लिए आभार...

बहुत सुन्दर लिंक्स…………गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर को हमारा शत-शत नमन

बहुत सुन्दर प्रस्तुति...

वाह टैगोर मयी वार्ता ..बहुत ही खूबसूरत.

bahut sundar

plz add my follwing blogs

http://sudheer-maurya.blogspot.com

http://myheartmypoetry.blogspot.com

plz sir add my blog

http://emagzinesanjh.blogspot.com

Sudheer Maurya 'Sudheer'
आभार कि आप वार्ता में आये..
आपके ब्लाग को अवश्य शामिल किया जावेगा

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