अवचेतन में कभी कोई बात चुहिया सी चिन्तन के तंतुओं को कुतर कुतर के काती है तब हम चुहिया को मारने दौड़ जाते हैं. कुंठा का डंडा लेकर. जी ऐसा करना गलत है ?
तो क्या चिंतन के तागों को सैंत में टूटने दिया जाए, ?
न उस चुहिया यानी दिल को चुभती बात को सर्जना का पथ दिखाईये.
जी हां , उर्ज़ा इस लिये नहीं मिली कि उसे लड़ने-झगड़ने में खर्च करें हम लोग. जिस्म को किसी भी स्थिति में दिमाग से दूर न जाने दीजिये ये था आज़ का विचार जो सच सनातन है आप चाहे जो समझें पर आज़ अमन्यस्क भाव से चर्चा लिख रहा हूं. कुछ लिंक जो आज़ दिन भर छाए रहे थे उनको आप देख लीजिये मुझे जो कहना था कह दिया
15 टिप्पणियाँ:
nice
बेहतरीन चर्चा रही...
बढ़िया गिरीश भाई ,
नए पन और अच्छे अंदाज़ के लिए बधाई !
बहुत सार्थक विचार है
गिरीश बिल्लोरे जी ,
" लाली देखन मै भी चली......" से..... " सुबह की शुरूआत ......" कराने के लिए धन्यवाद !
मिश्र जी, आपके एक लाईनाओं को मिस कर रहा हूँ !
धन्यवाद् गिरीश साहब "अमन का पैग़ाम" के लिंक देने के लिए
अच्छी वार्ता .
अच्छी वार्ता ......धन्यवाद
बहुत अच्छी वार्ता।
बेहतरीन चर्चा
बेहतरीन चर्चा...
aap sabhee kaa abhaar
अच्छी वार्ता. अपने स्नेहाशीष के साथ मेरी रचना को वार्ता पर स्थान देने के लिए आभार.
सादर
डोरोथी.
बेहद उम्दा ब्लॉग वार्ता ..... आपका आभार !
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