संध्या शर्माका नमस्कार ...... सवाल
उठता है कि शासन स्कूल बच्चों को पढ़ाने के लिए खोलता है या छुट्टियां देने
के लिए। ठीक है लगातार पढ़ाई के बाद कुछ दिनों का अवकाश बच्चों को मिलना
चाहिए, लेकिन इस बात का भी ध्यान रखना चाहिए कि छुट्टी इतनी लम्बी न हो कि
स्कूलों में जो पढ़ा हुआ है, उसे बच्चे भूल जाएं। साथ-साथ छुट्टियों की
जरूरत पर भी गौर करना चाहिए।ऐसा लगता मानो व्यवस्था चाहती ही नहीं कि
प्रदेश में शिक्षा को बढ़ावा मिले, यहां की पीढ़ी अच्छी शिक्षा प्राप्त कर
आगे बढ़े। क्योंकि पिछड़ापन से कई तरह के राजनीतिक स्वार्थ सिद्ध होते हैं।
राजनीति को अज्ञानता और पिछड़ापन से कई फायदे है, लेकिन यह सोच सामंती है।
लोकतंत्र में इसका कोई स्थान नहीं। पूरी कोशिश हो कि शिक्षा का स्तर सुधरे
…आइये अब चलते हैं आज की वार्ता पर इन बेहतरीन लिंक्स के साथ…
टूटता कहाँ है दिल ...विशुद्ध रासायनिक किया है
दिल का टूटना
देखने में भले ही भौतिकी लगे,
इसमें भौतिक इतना ही होता है कि
किसी को देखने की लत से मजबूर नशेड़ी आँखें
चेहरे से हटकर दिल में फिट हो जाती हैं
फिर
दिल से दिखायी पड़ने लगता है सब कुछ
और पथरा जाती है
चेहरे की आँखें
जरा भी आकस्मिक घटना नहीं है
दिल टूटना
क़तरा-क़तरा करके ज़मींदोज़ होता है कोई ख़्वाब
रेशा-रेशा करके टूटता है एक धागा
लम्हा-लम्हा करके बिखरती है जिंदगी
उखडती है....पापा के डर से ...मुझे याद नहीं
पापा ने कब गोद में उठाया
कब भागे आइसक्रीम खाने
प्रसन्नता के अतिरेक में
हां ये जरूर याद है
माँ रह गयी पीछे भागते भागते
मुझे याद नहीं
पापा ने कब अपने कन्धों पर बिठाकर
रामलीला दिखाई
और माँ खरीदती रही खिलौने
कभी चाभी से चलने वाली कार
कभी हसने वाला जोकर
मुझे ये भी याद नहीं ...क्या किया है कमाल मेरे खूने जिगर ने,जरा देख तो लूं .. लाल सुर्ख है उसके पांव की मेहंदी,जरा देख तो लूं
क्या किया है कमाल मेरे खूने जिगर ने,जरा देख तो लूं
मद्दतों मेरे पहलू में रहा उमडती घटाओं की तरह
रक़ीब़ की बाहों में अब बरसना उसका जरा देख तो लूं
दिवानगी में भी हदों से पार न हुआ महफूज़ रहा
आज मगर बिखरनां उस जज्ब़ात का जरा देख तो लूं
था इल्म, तेरे वादे-वफा-मोहब्बत की रस्में सब फ़रेब़ है
गणेश जी मुंगडा ओ मुंगडा से जन्नत की हूर तकपिछले साल के मुंगडा ओ मुंगडा वाले गणेश इस वर्ष कोई जन्नत की वो हूर नहीं
के साथ आए....अजीब लगता है ना सुनकर पर हाईटेक ज़िन्दगी के साथ लोगो ने पहले
गणेश जी को हाईटेक बनाया और अब गणेश पंडालों में बजने वाले गाने आपको चौका
देंगे गणेश जी भी सोचते होंगे क्या है भाई कुछ तो शर्म करो..ड्रीमम वेकपम' की संदर्भ सहित व्याख्या...खुशदीपपढ़ाई के तरीके बदल रहे हैं...अब उन तरीकों से बच्चों को पढ़ाने पर ज़ोर दिया
जा रहा है जिन्हें वो आसानी से समझ सकें...जैसे बच्चा-बच्चा और किसी को
पहचानता हो या न हो लेकिन सचिन तेंदुलकर और शाहरुख़ ख़ान को ज़रूर पहचानता
होगा...इसलिए अब कई सेलेब्रिटीज़ को बच्चों के पाठ्यक्रम में शामिल किया जा
रहा है...कहते हैं कविता हमारे जीवन से खत्म होती जा रही है...लेकिन धन्य है
हमारा बॉलीवुड ...यादों का मैं गोदाम बेंच दूँ .चाहत के पल,.... बेदाम बेंच दूँ,
फुरसत के दिन, आराम बेंच दूँ,
मुस्किल है,... कांटेदार जिंदगी,
फूलों को गम का,...बाम बेंच दूँ,
धोखा... बेचैनी.... और... बेबसी,
दिल को दिल का मैं काम बेंच दूँ,
गायब हो,, ये,,, मुस्कान होंठ से,
नैनों को इतना,,,,,, जाम बेंच दूँ,
रहता है तन्हा,,, रोज़- रोज़ दिल,
यादों का मैं,,,,,,,, गोदाम बेंच दूँ,
...
घास मैदानों में
ढलानों में
घर के लानों में
खेत-खलिहानों में
बागानों में
सड़कों के किनारों में
कवि के विचारों में
बारिश की रिमझिम फुहारों में
धरती का मखमली
गुदगुदा बिस्तर बनने का सुख
घास को हासिल है
घास
आस है
विश्वास है
दर्शन है
उपहास -परिहास है
घास
स्वाभिमान है -
तूफानों में
खुद को झुका लेती है
हो जाती है नत-मस्तक
छद्म -क्षणिक प्रभुत्व के आगे
और बाद की शांति में
हो जाती है...शब्दों की सीमा बाहर है शब्दों की सीमा बाहर है
शब्दों से ही परिचय मिलता
उसके पार न जाता कोई,
शब्दों की इक आड़ बना ली
कहाँ कभी मिल पाता कोई !
ऊपर ऊपर यूँ लगता है
शब्द हमें आपस में जोड़ें,
किन्तु कवच सा पहना इनको
बाहर ही बाहर रुख मोड़ें !
भीतर सभी अकेले जग में
खुद ही खुद से बातें करते,
एक दुर्ग शब्दों का गढ़ के
बैठ वहीं से घातें करते !
खुद से ही तो लड़ते रहते
खुद को ही तो घायल....शत शत प्रणाम करुणा सागर..**
*जनकवि स्व. कोदूराम “दलित”*
* *
*(चित्र गूगल से साभार) *
हे ओम् रूप , गज वदन देव
हे गणनायक , हे लम्बोदर |
हे सिद्धि सदन ,कल्याण धाम
शत-शत प्रणाम करुणा सागर ||
हे एकदंत , हे दयावंत
विज्ञान पुंज , अनुपम उदार |
कर दूर अविद्या , अनाचार
भर दे जन-जन में सद् विचार ||
सुख शांति सम्पदा कर प्रदान
त्रय ताप पाप दुख दारिद हर |
हे ओम् रूप , गज वदन देव
हे गणनायक , हे लम्बोदर ||
भारत - स्वतंत्रता रहे अमर
गण-तंत्र सफल होवे ...
तुम्हारे लिएतुम्हारे लिए
एक खुशी है
फिर एक अफसोस भी है
कि कोई लगता है गले और
एक पल में बिछड़ जाता है।
खिड़की में रखे
सलेटी रंग के गुलदानों में
आने वाले मौसम के पहले फूलों सी
इक शक्ल बनती है, मिट जाती है।
ना उसके आने का ठिकाना
ना उसके जाने की आहट
एक सपना खिलने से पहले
मेरी आँखें छूकर सिमट जाता है।
कल रात से
मन मचल मचल उठता है,
ज़रा उदास, ज़रा बेक़रार सा कि ये कौन है
जो लगता है गले और बिछड़ जाता है।
एक ख़ुशी है, फिर एक अफ़सोस भी है।
* * ...आश्रिताकभी कभी प्रकृति
अजीब से सवालों में उलझा देती है,
सोच में डाल देती है...
जैसे आँगन की दीवार पर चिपक कर
चढ़ने वाली वो बेल
क्या उस खुरदुरी सूखी दीवार से
मोहब्बत करती होगी ?
या बिना उसके सहारे चढ़ जो नहीं सकती
आश्रित है उस पर
इसलिए उससे मोहब्बत का स्वांग रचती है ??
काश के सच्चे प्यार को पहचानना
इस कदर मुश्किल न होता....दरवाज़े की ओट से ...*
*
बहुत बार ध्यान से देखा है तुम्हें
दरवाज़े की ओट से ...
तुम रोती हो ,चुपचाप आँसू बहाती हो
बिन किसी शोर के....पर क्यों?
क्या दुःख है तुम्हें ?
अभिव्यक्ति ,प्रकृति व जीवनक्रम
के साथ अंतरद्वंद में डूबी,
जिसे तुम बाँट नहीं सकती
क्या बात है दिल में तुम्हारे,
जिसे तुम ,बतला नहीं सकती
सिसकती हैं धड़कने तुम्हारी ,
पर कभी कोई आवाज़
क्यों नहीं आती ...
" चलती कार में ठिठकी निगाहें ......"साथ उसका और ,
सफ़र कार का,
बाहर मौसम सुहाना था,
भीतर वह दीवाना था ,
निगाहों में उसके रफ़्तार थी,
मेरी निगाहें उस प्यार पे थीं ,
उंगलियाँ उसकी गुनगुनाती जब थी ,
मैं लजाती शर्माती इठलाती तब थी ,
पलकें मेरी गिरती उठती ,
और सहमती थी भय से ,
*पर जब भी देखा था हौले से ,*
*मुस्करा के उसने ,*
*निगाहें तब तब ठिठकी सी थी |*
...सुबह के साथीआइये आज आपका परिचय एक और विलक्षण व्यक्तित्व से करवाती हूँ जिनसे हम लोगों का
परिचय शाहजहाँ पार्क में सुबह की सैर के दौरान ही हुआ ! ये सज्जन हैं श्री
कृष्ण मुरारी अग्रवाल ! पुराने आगरा से कचहरी घाट से ये हर रोज पार्क में आते
हैं और इनकी पार्क के हर मोर, तोते, कौए यहाँ तक कि कुत्तों व बंदरों के साथ
भी बड़ी अच्छी दोस्ती है !...शिकायतहै मुझे शिकायत तुमसे
दर्शक दीर्घा में बैठे
आनंद उठाते अभिनय का
सुख देख खुश होते
दुःख से अधिक ही
द्रवित हो जाते
जब तब जल बरसाते
अश्रु पूरित नेत्रों से
आपसी रस्साकशी देख
उछलते अपनी सीट से
फिर वहीँ शांत हो बैठ जाते
जो भी प्रतिक्रिया होती
अपने तक ही सीमित रखते
मूक दर्शक बने रहते
अरे नियंता जग के
यह कैसा अन्याय तुम्हारा
तुम अपनी रची सृष्टि के
कलाकारों को...
तन्हाई है ...जो छाई है
तन्हाई है
घर की तुलसी
मुरझाई है
जो है टूटा
अस्थाई है
कल था पर्वत
अब राई है
अब शर्म नहीं
चिकनाई है
महका मौसम
तू आई है
दुल्हन देखो
शरमाई है
(गुरुदेव पंकज जी के सुझाव पे कुछ कमियों को दूर करने के बाद)
....जश्न के बिना आदमी की गुज़र होती नहीं*अपने लिए तो ग़मों की रात ही जश्न बनी *
*जश्न के बिना आदमी की गुज़र होती नहीं *
*इसीलिये सजदे में सर अब भी झुका रक्खा है *
**
*गम की आदत है ये दिन रात भुला देता है *
*हम नहीं आयेंगे इसके झाँसे में *
*चराग दिल का यूँ भी जला रक्खा है *
**
*नाम वाले भी कभी गुमनाम ही हुआ करते हैं *
*ज़िन्दगी गुमनामी से भी बढ़ कर है *
*ये गुमाँ खुद को पिला रक्खा है *....खरोंचकल तक जो
आन बान और शान थी
कल तक जो
पाक और पवित्र थी
जो दुनिया के लिए
मिसाल हुआ करती थी
अचानक क्या हुआ
क्यों उससे उसका ये
ओहदा छीन गया
कैसे वो मर्यादा
अचानक सबके लिए
अछूत चरित्रहीन हो गयी
कोई नहीं जानना चाहता
संवेदनहीन..
बच्चों को छुट्टियों की आवश्यकता तो होती है पर हर बात की सीमा आवश्यक होती है यह बात शासक वर्ग नहीं जानता |खैर छोडिये |अच्छी वार्ता है |मेरी रचना शामिल करने के लिए आभार | आशा
6 टिप्पणियाँ:
बच्चों को छुट्टियों की आवश्यकता तो होती है पर हर बात की सीमा आवश्यक होती है यह बात शासक वर्ग नहीं जानता |खैर छोडिये |अच्छी वार्ता है |मेरी रचना शामिल करने के लिए आभार |
आशा
सुन्दर सूत्रों से सजी वार्ता।
बढिया लिंक्स
बढिया वार्ता
बहुत सुन्दर सूत्रों के साथ आज की वार्ता लगाई है संध्या जी ! मेरी रचना को सम्मिलित करने के लिये आपका बहुत बहुत धन्यवाद !
नए सूत्र मिल गए ... अच्छी वार्ता ...
शुक्रिया मुझे भी शामिल करने का ...
एक टिप्पणी भेजें
टिप्पणी में किसी भी तरह का लिंक न लगाएं।
लिंक लगाने पर आपकी टिप्पणी हटा दी जाएगी।