सोमवार, 25 जून 2012

राजनीतिक शून्यता - कुछ तो कहो ------ ब्लॉग4वार्ता ---------- संध्या शर्मा

संध्या शर्मा का नमस्कार, कैसी विडम्बना है? देश में जहाँ एक ओर खाद्यान्न सड़ रहा है, वहीं दूसरी ओर कुछ ऐसे भी बदनसीब हैं जिन्हें एक जून का खाना भी नसीब नहीं हो रहा. गरीबी रेखा, अमीरी रेखा में बदल चुकी पर गरीब वहीं पर हैं. आज ललित शर्मा जी ने फेसबुक पर आँखे खोल देने वाले चित्र लगाये. इन चित्रों में एक व्यक्ति सडा हुआ खाना कचरे के ढेर से उठा कर खा रहा है . लगता है देश के गरीबों की यही नियति हे. जहाँ एक ओर प्लानिंग  कमीशन के उपाध्यक्ष के टायलेट लिए ३५ लाख रूपये खर्च कर दिए जाते हैं वहीं दूसरी ओर दाने-दाने के लिए गरीब मोहताज़ हैं....... अब प्रस्तुत हैं मेरी पसंद के कुछ ब्लॉग के लिंक, आज की वार्ता में.........

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पाषाण ह्रदयकई बार सुने किस्से सास बहू के बिगडते बनते तालमेल के विश्लेषण का अवसर न मिला जब बहुत करीब से देखा अंदर झांकने की कोशिश की बात बड़ी स्पष्ट लगी यह कटुता या गलत ब्यवहार इस रिश्ते की देन नहीं है यह पूर्णर...डॉक्टर साहब , क्या आप डॉक्टर हैंमेडिकल कॉलेज में प्रवेश पाने पर अक्सर सीनियर्स द्वारा फ्रेशर्स से एक सवाल पूछा जाता है -- *डॉक्टर क्यों बनना चाहते हो ! *आजकल तो पता नहीं लेकिन हमारे समय में अक्सर बच्चे यही ज़वाब देते थे -- *जी देश के लो...चिंगारी सच ! कब तलक हम भागेंगे, मुहब्बत से 'उदय' किसी न किसी दिन तो पकड़ में आ ही जाएंगे ? ... एक हम ही नादां थे 'उदय', जो सीरत के दीवाने थे वर्ना, शहर में कौन है .... जो सूरत पसंद नहीं है ? ... जी चा...

पत्थरपत्थर मैं हूँ पत्थर खुशबू, ख़ुशी और सुर्ख रंग का सौदागर. पीसता हूँ, पिसता हूँ, देखता हूँ, सुनता हूँ, समझता हूँ मौन रहता हूँ नहीं बजती शहनाई किसी घर मेरे बिना हर दुल्हन की हथेलियों को सजाता हू...तत्काल टिकट में हैकिंग का खेलजिस तरह से तत्काल टिकट बनवाने में लगने वाले समय से आम लोग परेशान रहते हैं और रेलवे तमाम कोशिशें करने के बाद भी इस समस्या को अभी तक सुलझा नहीं पाई है उससे यह तो पता चलता है कि कहीं न कहीं पर इस प..ਨਸੀਬ ਹੋ ਗਈ ..ਨਯਿਯੋੰ ਲਗਿਯਾ ਉਡੀਕਾਂ ਦਿਯਾਂ ਡੋਰਿਯਾਂ * *ਅੰਖਾਂ ਖੁਲਿਯਾਂ ਨੀ ਖੁਲਿਯਾਂ ਸਵੇਰ ਗਈ- * * * *ਸਬਦ ਸੁਣਿਯਾ , ਰੂਹਾਨੀ ਕਿਤਾਬ ਦੀ * *ਗਲ ਉਲਝੀ ਸੀ ਸਾਡੀ , ਨਿਬੇੜ ਹੋ ਗਈ-* * * *ਦੀਵਾ ਬਲਿਯਾ , ਹਨੇਰਾ ਮੁਕ...

वार्ता को देते हैं विराम ......... मिलते हे अगली वार्ता में ........

7 टिप्पणियाँ:

यह चित्र मैंने एक बार रायपुर स्टेशन के बाहर देखा था |तब भी बहुत आश्चर्य हुआ था कि कोई कचरे में से भी झूठन उठा कर खा सकता है |बहुत सही धटना का चित्रांकन किया है |
मेरी रचना शामिल करने के लिए आभार |
कई लिंक्स हैं आज पढने के लिए |अच्छी रंगबिरंगी वार्ता |
आशा

देश के कर्णधारों का हृदय क्यों नहीं कचोटता है, यह दृश्य देखकर।

विचारणीय द्रश्य,सुंदर वार्ता,,,,,

शर्म, क्षोभ और ग्लानि से आँखें झुक गयी हैं और मन पर गहरी चोट लगी है ये चित्र देख कर ! क्या सचमुच हमें स्वयं को विकसित कहने का हक होना चाहिए ? क्या हम आज़ादी मिलने के चौंसठ साल बाद भी इन हालातों को ना बदल पाने के लिए शर्मिन्दा नहीं हैं ? फिर हमारे नेता किस बात पर इतना गर्व कर इतराते हैं ? सार्थक वार्ता संध्या जी ! मेरी रचना को आपने इसमें शामिल किया आभारी हूँ आपकी !

बढ़िया वार्ता... सुंदर लिंक्स
सादर आभार।

घोर अन्याय है यह, जिन लोगों ने इस तरह खाना फेंका है, उनको ही बिठा कर यही खाना खिलाया जाय...
फेंक देंगे खाना लोग, लेकिन गरीबों को देंगे नहीं..कितनी विकृत मानसिकता है..
यह उस देश में हो रहा है जहाँ की अधिकाँश जनता गरीबी रेखा के नीचे हैं, और जहाँ अन्नपूर्णा देवी की पूजा होता है..??
शर्मनाक है ऐसी हरकत..
ललित जी को धन्यवाद, इसे प्रकाश में लाने के लिए..
और आपका आभार

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