बुधवार, 23 फ़रवरी 2011

बांझ आम इस बार बहुत बौराया --- ब्लॉग4वार्ता --- ललित शर्मा

नमस्कार, एक सप्ताह पहले नरेश सिंह जी से चैटिया रहे थे। उन्होने बताया की बगड़ में जोर की बारिश हो रही है। गलियाँ और रास्ते कीचड़ से भर गए हैं और ठंड भी बढ गयी। ठंड का मौसम जाते-जाते अपना रंग दिखा रहा है। परसों से मौसम हमारे यहाँ भी खराब चल रहा है। रविवार को तो दिन भर बारिश होते रही। सोमवार को सुबह ठंड बढ गयी थी। दोपहर में कुछ राहत मिली सुर्यनारायण के दर्शन होने से। इधर धरसीवाँ के बरतनारा में इंजिनिरिंग के छात्रों द्वारा वेलेन्टाईन डे की शाम को किए गए सामुहिक बलात्कार जैसे कुकृत्य ने जन मानस को हिला दिया। शहर में दरिन्दों से कब किसकी अस्मत तार-तार हो जाए उसका पता नहीं। इस पर कल मुझे संजीव तिवारी जी की पोस्ट ने मौन कर दिया। मौन इसलिए कि एक अकेला व्यक्ति संगठित  गिरोह से नहीं लड़ सकता। अफ़ीम की पिनक में पड़े हुए लोगों के बीच बहादुरी दिखाना आत्महत्या ही है।कहीं न कहीं सामाजिक उदासीनता भी अपराधियों के हौसले बुलंद करती है। कानून इन कूकर्मियों को मृत्यु दंड क्यों  नहीं देता? अपराध की प्रकृति के हिसाब से दंड भी तय होने चाहिए।


पुलिस की नाकामी है कि अभी तक दरिंदे गिरफ़्तार नहीं हुए हैं। इधर खुशदीप भाई कहते हैं पुलिस जी, आओ ढोए तुम्हारी पालकी तफ्तीश के लिए पुलिस पहुंची... लेकिन ये देखकर ठिठक गई कि दोनों गांवों के बीच एक नाले जैसी पतली नदी बहती है...गांव वालों का ये रोज़ का रास्ता बेशक हो लेकिन पुलिस वाले साहब भला कैसे पानी में पैर रखें...जूते-पैंट भीगने का डर...वहीं सवाल करने लगे तो मृतक के परिजनों ने घटनास्थल तक चलने का अनुरोध किया....कोतवाल बीडी शर्मा और एएसआई सुरेंद्र सिंह बराच की हिचक देखकर गांववालों ने इल्तज़ा की कि हमारे कंधों पर चलिए हुजूर...और दोनों साहब भी तैयार हो गए...कौन कहता है कि देश को आज़ाद हुए 64 साल हो गए.... -- अंग्रेज चले गए लेकिन पुलिस अभी तक लोकतंत्र के कांधो पर सवार है और प्रजा इन्हे ढो रही है। कानून इनके हाथ में है जो चाहें कर दें। जिसे चाहें हवा खिला दें हवालात की।

संजीव तिवारी कहते हैं मुझे माफ कर मेरे हम सफरदीपक तुमने आज केवल छत्तीसगढ़ के गृहमंत्री को पत्र नहीं लिखा है, इसके मजमूनों में तुमने हमस सब को लपेटा है जो किसी ना किसी रूप में इस सिस्टम के मोहरें हैं ... पर क्या करें मेरे भाई, हमारे सामने हमारी बेटियॉं लुट रही हैं और हमारे मुह पर ‘पैरा बोजाया’ हुआ है। हम मजे से मुह में दबे पैरे को कोल्हू के बैल की तरह ‘पगुराए’ जा रहे हैं क्योंकि हममें सिर उठाकर ‘हुबेलने’ की हिम्मत नहीं है, क्योंकि हमारे पेट में दिनों से भूख ने सरकारी जमीन समझ कर एनक्रोचमेंट कर झोपड़ी बना लिया है। हमें शासन व पुलिस के कोडे और कूल्हे में चुभने वाले ‘तुतारी’ का भी भय है। हम चाहकर भी ‘मरकनहा बईला’ नहीं बन पा रहे हैं और सिर नवाए जुते जा रहे हैं।  

तुमने मेरे ब्लॉगिंग को ललकार कर मेरी रही सही अस्तित्व पर भी कुल्हाड़ी चला दिया, भाई मैं ब्लॉगिंग अंग्रेजी ब्लॉगों की तरह किसी सार्वजनिक मुहिम के लिए नहीं करता किन्तु निजी मुहिम के लिए करता हूं, मुझे उन्हीं विषयों पर पोस्टे लिखना है जिनसे भेंड बकरियां मेमियाये और टिप्पणियों की बौछार लग जाए। मेरी ब्लॉगिंग भी एक प्रकार की राजनीति है जिसमें मैं जुगाड़ और चापलूसी तकनीकि का प्रयोग करता हूं। छत्तीसगढ़ की ग्रामीण असहाय बालिका के बलत्कार पर लिखने से मेरी पोस्टों को सत्ता के नुमाइंदे पढ़ना बंद कर देंगें, एसी पोस्टें चिट्ठा चर्चों में स्थान भी नहीं पायेंगी ... और मेरे ब्लॉग का रेंक भी बढ़ नहीं पायेगा और प्रदेश में मिलने वाले सम्मान या पुरस्कार जिसमें आजकल पुलिस प्रमुख ही मुख्य अतिथि होते हैं वे पुरस्कार व सम्मान भी मुझे नहीं मिल पायेंगें। सच मान मेरे भाई मुझे इस ब्लॉगिंग के सहारे नोबल पुरस्कार प्राप्त करने की लालसा है इसलिए तू मुझे उस असहाय निरीह बालिका के संबंध में लिखने को मत बोल।
 
ज्योति डांग कहती हैं कि बाल विवाह या बचपन से खिलवाड़, कभी बाल विवाह करना इस समाज की मजबूरी थी। जब मुगलों के शासन में कुंवारी लड़कियों को बलात उठा कर ले जाया जाता था। परिणाम स्वरुप बाल विवाह प्रथा एवं घुंघट प्रथा का जन्म हुआ। अब यह स्थिति नहीं है पर परम्पराओं के नाम पर कुप्रथाओं  की जड़ें बहुत गहरी हो गयी हैं। वे लिखती हैं--भारतीय गांवों में आज भी बाल विवाह किये जाते है . कानून भी बने हुए हैं किन्तु यह कुप्रथा आज भी हमारे समाज में 'जस की तस ' चली आ रही है . क्यूँ माँ , बाप अपने बगीचे की नन्ही कलियों  के साथ ये खिलवाड़ करते हैं . उनको क्या मिलता होगा यह सब करके . कभी सोचा कि छोटे छोटे बच्चों को शादी के बंधन में  बाँध देते है  . उनको मालूम भी होगा शादी क्या होती है शादी कि मायने क्या हैं ?,उनका शरीर शादी  के लिए तैयार भी है ?वो नन्ही सी आयु शादी के बोझ  को झेल पायेगी?

कुछ दिनों पहले नक्सलियों द्वारा 5 पुलिस वालों का अपहरण एवं रिहाई चर्चा का विषय बनी हुई थी। आशुतोष मिश्रा लिखते हैं --छतीसगढ़ संदर्भ - 2011प्रदेश का मौजूदा स्वरूप चिंता जनक है । यह प्रदेश के लोगों का मानना है लेकिन सरकार बड़ीही सहजता से इसे इंकार करती है । 18 जिलों वाले इस राज्य के सत्रह जिलों में नक्सलियों का सिकंजा कसा हुआ है - अच्छा नेटवर्क है , यह स्वंय प्रदेश सरकार कहती है , कब ? जबप्रदेश के मुख्यमंत्री , मुख्य सचिव , गृह सचिव और ऐसे ही महत्वपूर्ण पदों की शोभा बढ़ाने वाले नेता और अधिकारी नई दिल्ली में प्रधान मंत्री , गृह मंत्री की बैठकों में पैसा और पैकेज मांगने के लिए बोलते हैं । इन्हें प्रदेश के हर थाना क्षेत्र की सुरक्षा के लिए केंद्र से 200करोड़ रुपया चाहिए । राजनीति शास्त्र कहता है - " राज्य एक लोकतांत्रिक संस्था है। " लेकिन हमारे राज्य में आकर देखिए तो एहसास होगा यह एक वर्ग विशेष की बेहद नीजि सी संस्था है । यहाँ अमीरी और गरीबी की खाई बेहद तेजी से बढ़ रही है । गरीबों की जमीनें धनवानों को और अधिक धनवान बना रहीं हैं , वहीं गरीबों को न केवल गरीब वरन  आगे चल कर भूमिहीन और निकम्मा बनाने की बहुत ही सोची-समझी साजिश का आसान शिकार बना रहीं है।

पवन धीमान कई महीनों के बाद ब्लॉग पर सक्रीय दिखे हैं लेकर  आए हैं अभिष्ट गीत मुझे अभिष्ट है ऐसा गीत, जो ज्वलंत प्रश्न उठाता है. सोच की पौध सींचता है जो, दाद भले नहीं पाता है. अब्दुल्ला और राम की कहता, संध्या और अजान की कहता, जो मस्जिद में खुदा और मंदिर में भगवान् बुल...-- यहाँ शिकायतों का अम्बार लगा है मुझे शिकायत हे, आप को शिकायत हे, सब को शिकायत हेजी हम सब को शिकायत हे इन आज के बकवास टी वी प्रोगरामो से, ओर हम सब बस मन मसोस कर रह जाते हे, या हमे पता ही नही होता कि हम अपने हक के लिये क्या करे, या हम सब के पास समय ही नही होता कि ढुडे कि इस की शिकायत कह...

अरुण राय सरोकार पर लिख रहे हैं राजपथ पर गिलहरियाँराजपथ कभी इसका नाम था 'किंग्स वे' जरुरत नहीं समझाने को इसका अर्थ बदल दिया है जिसने पूरे राष्ट्र का चरित्र राजपथ के एक छोर पर है राष्ट्रपति भवन जहाँ निवास है सैकड़ों एकड़ में फैले दुनिया के निचले ...डॉ आर रामकुमार का गीत पढिए -बांझ आम इस बार बहुत बौराया ।कुदरत ने दिल खोल प्यार छलकाया बांझ आम इस बार बहुत बौराया ।। देख रहा हूं नीबू में कलियां ही कलियां । फूलों से भर गई नगर की उजड़ी गलियां। निकले करते गुनगुन भौंरे काले छलिया। उधर दबंग पलाशों ने भी अपना रंग दिख... पढिए शिखा जी की कविता यही होता है रोज

बीबीसी रेडियो की हिंदी सेवा बंद करने का निर्णय दुर्भाग्यजनकबीबीसी रेडियो की हिंदी सेवा बंद करने का निर्णय अत्यंत ही दुर्भाग्यजनक है. बीबीसी वर्ल्ड सर्विस का यह निर्णय रेडियो श्रोताओं के लिए कुठाराघात से कम नहीं है. यह दुनिया जानती है कि बीबीसी रेडियो के कार्यक्र...अन्तर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस परसबका आपन मातरी भू , संसकिरिति अउर मातरी भासा केर सम्मान/बिकास करै क चही , यनहीते खुसियन/थई कै* * राह निसरत है--- वाणी जी की कविता पढिए मैं ..मैं ..मैं कई बार हास्य महज हंसने के लिए नहीं होता ...इसमें सहज सन्देश भी छिपा होता है ...अपने मैं को संतुष्ट करने के लिए हम क्या नहीं कहते , क्या नहीं करते ...जब अपने मुख से या किसी और के मुख से लगातार मैं -मैं सुना...

कौन कहता है कि नारी अबला होती है ? डॉ टी एस दराल  अंतर्मंथन -पर--कहने को तो वह अपनी दूर की रिश्तेदार है । वैसे बहुत करीबी रिश्तेदार की करीबी रिश्तेदार है । शायद रिश्तों की केमिस्ट्री ऐसी ही होती है । उससे पहली बार १३-१४ साल पहले मिला था । तब वह १७-१८ वर्ष की पतली दुबली...और नहीं बस और नहीं रविवार को अवसर था ताज महोत्सव में *आगरा *में संपन्न सूरसदन में आयोजित अखिल भारतीय कवि सम्मेलन का। सभागार खचाखच भरा था| बाकी कवि सम्मलेन जैसा ही यह कवि सम्मलेन हो जाता तो यहाँ लिखने की जरूरत नहीं पड़त...

इशारों को देखिए !
                                          महलों को देखिए , मीनारों को देखिए ,
                                         सपनों  में मगन-मस्त सितारों को देखिए !

                                          कहते हैं वतन सबका इक प्यारा सा घर है,
                                          आंगन में रोज बनती दीवारों को देखिए !

                                          बूंदों के लिए तरस रही ये  वक्त की नदी ,
                                          लहरों से दूर  हुए   किनारों को देखिए !

                                          दौलत के दलालों की हर पल  यहाँ   दहशत ,
                                          इरादे भी खौफनाक ,  इशारों को देखिए  !
                                 
                                          गाँवों को मिटा कर वो बनाने लगे शहर ,
                                          काटते हरे जंगल-पहाड़ों को देखिए !


सिंहावलोकन पर ज़िंदगीनामा है, राहूल सिंह कहते हैं --अमृता प्रीतम की पुस्तक 'हरदत्त का ज़िंदगीनामा' है और कृष्णा सोबती के जिस ज़िंदगीनामा पुस्तक को मैं याद कर पा रहा हूं, उस पर शीर्षक के साथ 'ज़िन्दा रूख' शब्द भी था। विवाद था कि ज़िंदगीनामा किसका शब्द है। अच्छा लगा कि शब्दों के लिए इतनी संजीदगी है लेकिन दूसरी तरफ यह भी सोचनीय है कि हमारे न्यायालय के मामलों की अधिकता में पूरे 26 बरस एक संख्‍या बढ़ाए रखने में यह मुकदमा भी रहा। 

इसी तरह कहानी 'लटिया की छोकरी' का एक वाक्य है- ''बिलासपुर से उन्नीस मील दूर अक्लतरे में साबुन का कारखाना खोल दिया।'' यह साबुन कारखाना, लोगों की स्मृति में अब भी 'भाटिया सोप फैक्ट्री' के रूप में सुरक्षित है। अक्लतरे यानि अकलतरा और कहानी का लटियापारे, पास का गांव लटिया है। इन दोनों कहानियों के पात्र और घटनाओं की सचाई लोगों को अब भी याद हैं, लेकिन अफसाने को अफसाना ही रहने दें।  

इस पोस्ट की कुछ टिप्पणियाँ

rashmi ravija said...
अमृता प्रीतम को तो खूब पढ़ा है.....रसीदी टिकट सहित, करीब करीब उनकी सारी रचनाएं पढ़ी हैं...कृष्णा सोबती का लिखा ज्यादा नहीं पढ़ा....उनकी रचनाओं के ऊपर आलेख....उनके बोल्ड संवादों की चर्चा सुनी है...जिंदगीनामा के उद्धृत अंश भी पढ़ने का अवसर मिला. पर इस विवाद की मुझे जानकारी नहीं थी...और २६ वर्ष लग गए कोर्ट को फैसल सुनाने में??.....और इन दोनों लेखिकाओं ने इसका इंतज़ार भी किया ...शब्द बदलने को राज़ी नहीं हुईं....आश्चर्य है... अमृता प्रीतम का छत्तीसगढ़ से भी सम्बन्ध था, यह भी मेरे लिए एक नई जानकारी है. ...मुझे तो वे पंजाब और दिल्ली की ही लगती थीं
mahendra verma said...
आज कृष्णा सोबती के 86वें जन्म दिन पर आपकी यह प्रस्तुति महत्वपूर्ण है। कृष्णा सोबती का ‘जिंदगीनामा‘ 1979 में प्रकाशित हुआ जिसके लिए उन्हें 1980 में साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। 1984 में अमृता प्रीतम की पुस्तक ‘हरदत्त का ज़िदगीनामा‘ प्रकाशित होने के साथ ही कृष्णा जी ने मुकदमा दायर कर दिया कि ज़िंदगीनामा शब्द पर उनका कापीराइट है। खुशवंत सिंह ने अमृता जी के पक्ष में गवाही देते हुए कोर्ट में कहा कि कृष्णा सोबती के पहले भाई नंद लाल गोया द्वारा 1932 में प्रकाशित कृति में ज़िदगीनामा शब्द का उपयोग किया गया है। कोर्ट का निर्णय अमृता प्रीतम के पक्ष में रहा।
swaarth said...
मामले का दुखद पहलू है कि कोर्ट को इतने साधारण केस का फैसला देने में छब्बीस साल लग गये और जब अमृता प्रीतम के पक्ष मे फैसला आया तब तक वे दिवंगत हो चुकी थीं। उससे भी दुखद बात है कि कृष्णा सोबती जी ने ऐसा सोचा भी कि ’ज़िंदगीनामा’ शब्द पर उनका एकाधिकार हो सकता है। तब तो ज़िंदगी, जीवनी आदि शब्दों पर भी रचनाकार दूसरों को रोक लेते। पॉकेट बुक्स लिखने वाले कई लेखकों को विष्णु प्रभाकर जी के ऊपर मुकदमा कर देना चाहिये था कि वे कैसे आवारा शब्द का इस्तेमाल, शरत बाबू पर लिखी जीवनी के लिये कर सकते हैं। और नहीं तो राज कपूर ही कोर्ट चले जाते कि आवारा शब्द पर उनका कॉपीराइट है। कृष्णा सोबती जी को बालिग होने के बाद अपना नाम बदल लेना चाहिये था, आखिरकार उनसे पहले और बाद में लाखों कृष्णा भारत में जन्मी हैं। उन्हे कोई ऐसा नाम रखना चाहिये था जो किसी का न रहा हो और उनके बाद कोई और न रख सके, ऐसा इंतजाम वे नाम का पेटेंट लेकर कर सकती थीं। जज महोदय हंसे तो जरुर होंगे हिन्दी के लेखकों की ऐसी मानसिकता पर। कुछ और लड़ने को नहीं मिला तो शीर्षक पर हे लड़ लो।

ज्ञानदत्त पाण्डेय Gyandutt Pandey said...
वाह! जिन्दगीनामा पर जंग हो सकती है? वाह! ब्लॉगजगत में कई शब्द हैं, जिन्हें मैं क्वाइन किये जाने का दावा कर सकता हूं - जाने कितनी जंग लड़नी पड़ें मुझे!

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8 टिप्पणियाँ:

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